(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)
Desk News ब्रिटिश कालीन वन कानून-1927 मंे संशोधन करके वन संरक्षण अधिनियम, 1980 बनाया गया था और इसे बनाते समय उन लोगों से सुझाव मांगे गए थे, जिन्होंने चिपको आंदोलन और आदिवासी क्षेत्रों से संबंधित वनाधिकारों के लिए संघर्ष किया था। हालांकि 1980 के वन संरक्षण अधिनियम के बारे में कुछ पहाड़ी राज्यों के लोगों से ऐसी शिकायत भी सुनने को मिलती रही कि इससे निर्माण कार्यों को गति नहीं मिल रही है। केंद्र सरकार भी मानती है कि उनके सीमांत क्षेत्र विकास परियोजनाओं व अन्य बड़े निर्माण कार्यों में वन अधिनियम सबसे बड़ा रोड़ा बन रहा है। इसलिए विगत 26 जुलाई को लोकसभा में वन संरक्षण (संशोधन) विधेयक, 2023 पारित किया गया है। संसद में हंगामे के कारण विपक्ष की आवाज दब गई और विधेयक पारित हो गया। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद यह नया कानून बन जाएगा।
इस संशोधन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि भविष्य में किसी भी विकास कार्य के लिए ग्रामसभा से वन संबंधी कोई भी एनओसी लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। ऐसे में सवाल उठता है कि ग्राम सभाओं का अपने वन पर कोई अधिकार बचा है या नहीं। किसी भी निर्माण कार्य के लिए आरक्षित वनों को अनारक्षित करने, वन भूमि को पट्टे पर या अन्य तरीके से निजी इकाइयों को देने और पेड़ों की कटाई के लिए केंद्र सरकार की अनुमति लेनी पड़ती थी, लेकिन अब इसकी भी जरूरत नहीं रहेगी। इसी आधार पर लोग ऊपरी अदालतों में जाकर वनों को बचाने की गुहार लगाते थे।
इस संशोधन के अनुसार सीमांत क्षेत्र के 100 किलोमीटर के अंदर की भूमि को राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर वन संरक्षण कानून के दायरे से बाहर रखा जाएगा। इसलिए समझा जा सकता है कि सीमावर्ती क्षेत्रों में, जो बाढ़, भूकंप, भूस्खलन, हिमस्खलन के लिए अधिक संवेदनशील है और जहां प्राकृतिक व मानवीय आपदा दिनों-दिन बढ़ती जा रही है, वहां बड़े निर्माण कार्यों के दुष्परिणाम के संबंध में कानून की कोई धारा शायद ही काम करेगी।
अब हिमालय क्षेत्र हो या देश का कोई भी हिस्सा रेल लाइन बिछाने से लेकर छोटे-बड़े निर्माण कार्यों के लिए वन भूमि का उपयोग करने की खातिर निजी व्यक्ति, एजेंसी, प्राधिकरण, कंपनी को वन भूमि हस्तांतरण का अधिकार केंद्र को मिल गया है। पहले किसी भी परियोजना निर्माण से पहले पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट तैयार करनी होती थी और उसके लिए जनसुनवाई का प्रावधान था। नए संशोधन में पर्यावरणीय प्रभाव आकलन को महत्व नहीं दिया जा रहा है, क्योंकि यह सामरिक एवं सामाजिक दृष्टि से उपयोगी परियोजनाओं पर सवाल खड़ा करती रही है। इस तरह से सीमांत क्षेत्रों में वनों की अंधाधुंध कटाई के रास्ते खोले जा रहे हैं। वन और वनभूमि के संबंध में सरकार का फैसला ही अंतिम होगा।
इस संशोधन विधेयक के कार्यान्वयन के लिए फॉरेस्ट गवर्नेंस के पुनर्गठन की अनुमति दी गई है, जिससे भविष्य में इस पर नौकरशाही, वन माफिया, कॉरपोरेट का नियंत्रण बढ़ सकता है और लोगों की वर्षों पुरानी जल, जंगल, जमीन पर अधिकार की मांग की अनदेखी कर दी गई है। आदिवासी क्षेत्र हो या हिमालय में निवास करने वाले लोग, वनों पर अपने हक के लिए वर्षों से संघर्ष करते आ रहे हैं। वन कानून में हुए इस संशोधन के बाद लगता है कि ‘वनाधिकार’ और ‘पेसा’ कानून की कोई अहमियत नहीं बच पा रही है। इसके साथ ही यह कानून वनों की कटाई को रोकने के संबंध में 1996 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ है।
दुनिया में पर्यावरण संरक्षण की दुहाई देने वाले देशों में शामिल भारत को अपने पर्यावरण संरक्षण के लिए कोई न कोई नियंत्रण रेखा तो बनानी ही चाहिए और इसके लिए जन भागीदारी बढ़ानी चाहिए। सरकार को लोगों के सकारात्मक सुझावों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए, क्योंकि वन केवल अकेला पेड़ नहीं, बल्कि संपूर्ण धरती के लिए जल, जमीन और जीवन का पोषक भी है।